मंडला -बिछिया (मध्य प्रदेश) : भाग -१

मंडला -बिछिया (मध्य  प्रदेश)  : भाग -१

मैं और विजय जी अपनी टीम के साथ गाजियाबाद में तीन दिवसीय जंगली मधुमक्खी कंजर्वेशन सेमिनार अटेंड कर रहे थे। इस सेमिनार में मुख्याता क्लाइमेट चेंज से होने वाले इम्पैक्ट की मधुमखियों और जंगली फूलों पर पड़ने वाले प्रभाव पर गहन विश्लेषण किया जा रहा था। देश विदेश से लगभग ११०-१२० अनुसन्धान करने वाले साइंटिस्ट की टीम इस सेमिनार की अगवाई कर रही थी। सेमिनार की तीसरे दिन यानी की बीस मई को हमें हमारे अशोक भाई का फ़ोन आया जो कि प्रधानमंत्री वन धन योजना से जुड़े हैं, बिछिया, मध्य प्रदेश  में थे।

प्रधानमंत्री वन धन योजना भारत सरकार की आदिवासिओ की समर्पित उन मुख्य योजनाओ में से है जो उनके यहाँ पैदा होने वाली विभिन प्रकार की जंगली शहद, जड़ी बूटियों और खाद्य पदार्थो की पैदावार , खरीद और बिकवाली  में मदद करता है।
 
अशोक जी ने बताया कि बिछिया की जंगलो में इस बार बहुत अच्छी तदात में मधुमखियों के छत्ते आये है और शहद निकालने का कार्य २२ मई   से शुरू हो रहा ह।  समय का भाव देखते हुए हमने प्लान किया कि हमें २१ मई की सुबह ३:०० बजे ही निकलना होगा, यह सफर पहले दिन हमें गाजियाबाद से जबलपुर लेकर जाएगा जो की ८०६ किलोमीटर का है।   रात को देर तक मधुमक्खी कंजर्वेशन के ऊपर चर्चा करते हुए हमें सोने में बहुत वक्त लग गया जिस वजह से हम सुबह ३:०० बजे के बजाये 5:०० बजे निकल पाए और अब हमारा सफर शुरू हुआ गाजियाबाद से यमुना एक्सप्रेसवे होते हुए मथुरा - आगरा - धौलपुर जहां से एमपी की एंट्री होती है, पहला जिला मुरैना पड़ता है। हमने बहराइच में इस्थित रघु को, जो हमारी हार्वेस्टिंग टीम के मुखिया हैं , को औगत करा दिया था की १-२ दिन में ८-१० लोगो की टीम और साजो सामान के साथ मंडला बिछिया के लिए कूच करें। 

यहां से चालू हो जाते हैं चंबल की घाटी,  चंबल की घाटियां मध्य प्रदेश की एक प्राकृतिक और ऐतिहासिक धरोहर हैं जो अपने घुमावदार रास्ते और उभर खाबड पहाड़ियों और गहरी खड़िया के लिए जानी जाती है। यहां के दुर्गम इलाकों में कई दशकों तक डाकुओं का राज रहा है जिससे यह क्षेत्र एक रहस्य में और रोचक छवि प्रस्तुत करता है। वहां से ग्वालियर -डबरा -दतिया होते हुए झांसी पहुंचे और अब तक हम ४४० किलोमीटर गाड़ी चला चुके थ।

 हमने यहां झाँसी के पास एक ढाबे पे रूककर दिन का पहला खाना खाया और थोड़ा आराम किया आगे के ४०० किलोमीटर चलने की तैयारी की। आगे हमने बेतवा नदी के अगल बगल से होते हुए, जिसे बुंदेलखंड का हृदय कहा जाता है, ललितपुर पहुंचे। हमलोग ललितपुर में हमारे पुराने मित्र संजीव जी मिले जो फॉरेस्ट रेंजर रह चुके हैं बहराइच , उत्तर पदेश के कतर्निया घाट फारेस्ट में । उन्होंने सुझाव दिया की आगे के रास्ते आप सागर के बाद वीरांगना दुर्गावती टाइगर रिजर्व (जो कि अभी २०२३ में बना है यह टाइगर रिजर्व सागर धूम और नरसिंहपुर जिला के इलाकों के पास है और यह सातवां टाइगर रिजर्व है मध्य प्रदेश का मध्य प्रदेश में १४१४ स्क्वायर किलोमीटर का टाइगर रिजर्व है जिसमें कोर एरिया ९२५ स्क्वायर किलोमीटर का ह। ) उसी रास्ते से जबलपुर जाएंगे तो मन को मोह लेने वाले दृश्य दिखते हैं।

 

बातों ही बातों में हमने पूछा तभी कि आप ललितपुर छोड़कर वापस कतर्निया घाट क्यों नहीं आ जाते तो उन्होंने दिल को झांझर देने वाला एक कहावत सुनाई  

"झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार ।
 ललितपुर ना छोड़िए, जब तक मिले उधार।।"
 


 यह सुनकर हम लोग बहुत हँसे, लगभग दोपहर के ३:०० बज चुके थे और गले मिलकर उन्हें अलविदा कहते हुए हम ललितपुर से सागर की तरफ निकले और वहां से वीरांगना दुर्गावती टाइगर रिजर्व का रास्ता लिया। यह रास्ता बहुत ही मनमोहक है और बहुत ही अच्छे दृश्य से भरा हुआ था।  नया-नया टाइगर रिजर्व बनने के कारण टूरिस्ट भी नहीं थे और रास्ते के ४० किलोमीटर के ट्रैक में हम अकेले ही गाड़ी चला रहे थे। वहां जाकर हमने देखा की सबसे सस्ता सरकारी विश्राम केंद्र और सबसे सस्ती सफारी तो भाई वहीं  होती है जो की ₹२०००  में आपको जिप्सी मिल जाती है।


सड़क किनारे कई मधुमखियों के छत्ते लगे थे जिन्हें देखकर हमारा दिल बहुत ललचाया लकिन फारेस्ट कंजर्वेशन बेल्ट होने की वजह से हम कुछ नहीं कर सकते थे।  हमने कुछ छत्तो को तो कैमरों में कैद किया, रास्ते में चहलकर्मी करता हुआ भेड़िया मिला और उसके बाद हमें बहुत सारे लंगूर मिले, जिन्हें हमने चने खिलाएं और बहुत देर तक उनके साथ खड़े रहे । वहां से आगे एक बहुत ही सुंदर सा गांव मिला जिसका दृश्य मन को मोह लेने वाला था। उसी एकांत जगह पर हमने 40 से 45 मिनट प्रकृति  का आनंद लिया , कई लोगों से वार्तालाप करके उनके साधारण जीवन को बहुत कम सुविधाओं के साथ जीवन यापन करने का तरीका देखकर हम दंग रह गए। टाइगर रिजर्व पार करते-करते शाम के ७:०० बज गए थे और और रात लगभग १२:००  बजे हम जबलपुर पहुंचे।  वहां हमने एक गेस्ट हाउस  लिया जिसका शुल्क ₹800 था। फटाफट हमने रोटी और दाल फ्राई ग्रहण किया और थकान की वजह से बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई।  

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